*भुवन जोशी जनतानामा अल्मोडा उत्तराखण्ड*
उत्तराखण्ड लोक वाहिनी ने अतिक्रमण हटाये जाने के दोहरे मापदण्ड की आलोचना की है ,वाहनी के प्रवक्ता दयाकृष्ण काण्ड़पाल ने प्रेस को जारी विज्ञप्ति में कहा है कि सरकार को न्यायालय में पहाडों की भौगोलिक संरचना , व कठिनाईयों की जानकारी न्यायालय के सम्मुख रखकर ही अतिक्रमण पर नीति बनानी चाहिये ,।
उ लो वा ने कहा है कि पहाडों के बजाय मैदानो में 20% जनसंख्या बढ गई है , ये मतदाता अतिक्रमणकारी हैं ,या वास्तविक ,इसकी भी जांच होनी चाहिये ।,देहरादून जैसे राजधानी क्षेत्र मे ऋषिपर्णा (रिस्पुना) नदी के तट पर बाहरी राज्यों से
लोगों ने कलौनिया बना दी है यही नही इससे उत्तराखण्ड में राजनैतिक व सामाजिक परिदृश्य भी बदल गया है , अब 2026 के परिसिमन के बाद राजनैतिक हैसियत भी बदल जायेगी ।, इसके लिये वे राजनैतिक दल सीधे तौर पर जिम्मेदार है। जिनकी इस राज्य में सरकारें रही हैं। सरकार को चाहिये कि वह पहाडों मे अकिक्रमण के नाम पर बचे खुचे लोगों को उजाड़ने के बजाय यह पता लगाये कि पाँच सालों मे राज्य के मैदानी जनपदों में बीस प्रतिशत वोटर कैसे बढ़ गये ,। जांच कर वास्तविक वोटर लिस्ट तैयार कर भू – राजनैतिक अतिक्रमण पर भी सरकार रोक लगाये , वाहनी ने कहा है कि यदि इस भू – राजनैतिक अतिक्रमण पर सरकार ने रोक नही लगाई तो 2026 मे होने वाले परिसिमन में उत्तराखण्ड़ के पर्वतीय जनपदों में विधायकों के पद और कम हो जाएंगे , पिछले परिसिमन में ही पहाड़ो की छ: सीटे कम हो गई है ,। अगले परिसिमन मे यह सीटे और कम हो जायेगी पहाड़ों मे हजारो गांव भूतहा गाँव बन गये है, इसका कारण यह है कि पहाड़ो को उनके हिस्से के विकास से वंचित रखा गया है , जिस कारण लोग पलायन के लिये बाध्य हैं। सरकार को अतिक्रमण हटाने से पहले पलायन आयोग के निस्कर्षों को भी देखना चाहिये तथा पीढ़ियो से पहाड़ों में रह रहे लोगों को अंग्रेजी सरकार के प्रावधानों की तरह ही परम्परागत कानूनों का लाभ देना चाहिये , सरकार को यह तथ्य भी संज्ञान में लेना चाहिये कि पहाड़ो में पहले से ही जनसंख्या कम हो रही है , ऐसे मे अब बचे खुचे लोगों को भी अतिक्रमण के नाम पर उजाड़ देने से हजारों लोग बेरोजगार ही नही होंगे अपितु लोग पुन: पलायन के लिये बाध्य हो जायेंगे, , उ. लो. वा. ने सरकार से मांग की है कि वह अंग्रेजों के समय पहाड़ों में लागू सिड़्यूल कानूनों का भी अध्ययन कराये , साथ ही इस बात का संज्ञान भी ले कि 1962 में जो जमीनों की पैमाईस हुई उसमें वे लोग भूमिहीन हो गये जो रोजगार के कारण अपने गांवों से बाहर थे ,या वे लोग जो पैमाईस के समय मौके पर मौजूद नही हो सकें,या उस समय जानवरों के लिये घास उगाने के उद्देश्य से खेत बंजर रखे गये थे सरकापी अमीनों ने वे जमीनें बेनाप दर्ज कर दी , जबकि उन जमीनों मे उनका पैत्रिक हक था ,। जिससे उन लोगों को वंचित कर दिया गया ,ऐसी जमीनों पर काबिज लोगों का पक्ष सरकार को न्यायालय में रखना चाहिये, रोजगार व जीवन यापन के लिये न्यूनतम भूमि किसी भी नागरिक की मौलिक जरूरत है , पहाड़ों में अधिसंख्य आबादी के पास अब आवास बनाने के लिये भी जमीने नहीं बची है , ऐसे में रोजगार व अन्य कारणों से लोग सड़को के किनारे काबिज हो गये है , कई लोग नाप जमीनों मे भू स्खलन के कारण भी सरकारी अथवा वेनाप जमीनों मे काविज है , कुछ लोग अंग्रेजों व आजाद भारत में लोक प्रचलित शिलशिला कानूनों की वजह से भी कथित सरकारी व सिविल वन (पंचायत )भूमि में बसे हैं.। इन सभी पारम्परिक व पूर्व मे लागू परम्परागत कानूनों का भी सरकार को अध्ययन कराना चाहिए , सरकार को इसके लिये बाहरी लोगों द्वारा जमीनों की खरीद फरोख्त पर रोक लगाने के साथ ही यहाँ की प्राकृतिक ,सामाजिक,आर्थिक संरचना पर सहानुभूति पूर्वक विचार करना चाहिये।
उ. लो.वा. ने कहा है कि यदि सरकार उच्च न्यायालय के आदेश के प्रति इतनी ही गम्भीर है तो यह अभियान उन जनपदों से आरम्भ किया जाय जहां सर्वाधिक जनसंख्या बढ़ गई है तथा कंक्रीट के जंगल उग आये है सरकार मूल निवास 1951को वैधानिक दर्जा दे। यह प्रमाण पत्र उत्तर प्रदेश सरकार मे मान्य था , पर्वतीय विकास मन्त्रालय के माध्यम से पहाड़ो को प्रदत्त विशेषाधिकार सरकार पुन: लागू करें